"निरंतर" की कलम से....
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जब परेशां होता हूँ
उजाला भी काटने को
दौड़ता
अन्धेरा अच्छा लगने
लगता
मन करता आँखें बंद कर
किसी कौने में दुबक
जाऊं
कोई चेहरा
नज़र नहीं आये मुझे
हर शख्श ,हर बात को
भूल जाऊं
बचपन की यादों में
लौट जाऊं
कुछ लम्हों के लिए
ही सही
फिर से हंसने लगूँ
04-02-2012
107-17-02-12
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