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थोड़ा सा शर्मीला हूँ (हास्य कविता)

"निरंतर" की कलम से....
"निरंतर" की कलम से....
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तुमने पूँछा किसी से
क्या तुमसे मोहब्बत
करता हूँ?
ये बहम नहीं तुम्हारा
हकीकत है
बंद आँखों से भी
तुम्हें देखता हूँ
जब निकलती हो
घर से बाहर
कनखियों से देखता हूँ
सुबह-ओ-शाम
तुम्हारे नाम की
माला भी जपता हूँ
क्या करूँ मजबूर हूँ
थोड़ा सा शर्मीला हूँ
सामने कुछ कहने में
झिझकता हूँ
कभी कभी हकलाता हूँ
तुम्हारी मार से
घबराता हूँ
इसीलिए लिख कर
बता रहा हूँ
21-02-2012
211-122-02-12

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