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लाचारी में

"निरंतर" की कलम से....
"निरंतर" की कलम से....
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एक जोर की
किलकारी गूंजी
एक जान ने धरती पर
आँखें खोली
सड़क किनारे लेटी
माँ की आँखें खुशी से
नम हो गयी
अगले ही पल
खुशी हवा हो गयी
सोचने लगी
नन्ही सी जान को
कैसे खिलायेगी,पिलाएगी
अपना पेट भरना
ही कठिन
इसकी भूख कैसे मिटाएगी
कैसे हवस के भूखे
भेड़ियों से
इसकी अस्मत बचायेगी
विचारों ने पथ
चेहरे ने रंगत बदली
लाचारी में खुद से
कहने लगी
जो होगा देखा जाएगा
जैसे मैं अब तक जी
रही हूँ
वैसे ही ये भी जी लेगी
जो भी इसकी
किस्मत में लिखा होगा
भुगत लेगी
अभी तो इसका पेट
भर दूं
जो मेरे हाथ में है वो
तो कर दूं
फिर उसे दूध पिलाने
लगी
17-03-2012
392-126-03-12

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