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क्या कहूँ ज़माने को

"निरंतर" की कलम से....
"निरंतर" की कलम से....
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क्या कहूँ ज़माने को
ज़माना तो
अपनी चाल चलेगा
उगते सूरज को
सलाम करेगा
डूबते को अँधेरे में
धकेलेगा
हँसते के साथ हंसेगा
रोते को रुलाएगा
किसका हुआ है ज़माना
जो अब मेरा होगा
खुद को ही सहना
होगा
खुद को ही लड़ना
होगा
यूँ ही जीना होगा

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